कोरोना वायरस की वैक्सीन बनने में कितना टाइम लगेगा?


इबोला के शुरुआती केस 1976 में सामने आए थे. जबकि इबोला की वैक्सीन में मार्केट में आई. (सोर्स - रॉयटर्स)                  कोरोना वायरस की वैक्सीन को लेकर बहुतों के मन में सवाल हैं. वैक्सीन क्या होती है? कैसे काम करती है? और सबसे बड़ा सवाल- ये वैक्सीन बनने में इतना टाइम क्यों लग रहा है?

पहले सबसे बेसिक और ज़रूरी बात. वैक्सीन वायरस को नहीं मारती, वायरस को हमारा शरीर ही मारता है. वैक्सीन हमारे शरीर को इस लड़ाई के लिए तैयार करती है. सोचिए, वैक्सीन वायरस को भला कैसे मारेगी, जब वैक्सीन खुद वायरस ही होती है?
दरअसल, हमारे शरीर में वायरस से लड़ने वाले सैनिक यानी एंटीबॉडीज़ पहले से होते हैं. इन सैनिकों को चाहिए तो बस थोड़ी-सी इन्फॉर्मेशन और थोड़ा-सा मार्गदर्शन. और एन्टीबॉडीज़ को ये दोनों चीज़ें उसी वायरस से मिलती हैं.

ये वायरस का स्ट्रक्चर है. बाहरी प्रोटीन की स्पाइक्स से ये वायरस हमारी कोशिकाओं में दाखिल होता है. एंटीबॉडीज़ इन्हीं चाबियों को तोड़ देेते हैं.

किसी भी वायरस की वैक्सीन उसी वायरस के मरे हुए या कमज़ोर सैंपल्स होते हैं. इन सैंपल्स से हमारे शरीर को अंदाज़ा लगता है कि वायरस कैसा है और इससे कैसे लड़ना चाहिए. लेकिन यहां एक रिस्क भी है. अगर वायरस का ये सैंपल अंदर फैलने लगा, तो गड़बड़ हो जाएगी. इसलिए वैक्सीन बनाना बहुत फाइन बैलेंस का काम है. वायरस का सैंपल ऐसा होना चाहिए कि शरीर में उसकी पहचान भी हो जाए और वो खतरनाक भी साबित न हो. साथ ही ये भी देखना होता है कि इसका कोई साइड इफेक्ट न हो. यही सब देखने में बहुत टाइम लग जाता है.

वैक्सीन की टाइमलाइन 

अमेरिका का National Institute of Allergy and Infectious Diseases वहां के नामी इंस्टीट्यूट में से एक है. 3 मार्च, 2019 को इस इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर अमेरिकन सीनेटर्स से मुखातिब हुए. उन्होंने बताया कि वैक्सीन तैयार होने में कम से कम डेढ़ साल लगेगा. ये टाइम आपको बहुत ही ज्यादा लग सकता है. लेकिन यकीन मानिए ये बहुत टाइट टाइमलाइन है. ग्लोबल वायरॉलजी एंड वैक्सीन पॉलिसी के प्रोफेसर जॉन एंड्रस ने वायर्ड से कहा- ज़्यादातर वैक्सीन बाज़ार में आने के लिए पांच से 15 साल का वक्त लेती हैं.
इतना टाइम लगने के पीछे है कई स्टेज में होने वाला वैक्सीन डेवेलपमेंट. हम आपको वैक्सीन डेवेलपमेंट की स्टेज और उनमें लगने वाला कम से कम टाइम बताएंगे. बाकी गणित आप खुद लगावें.

अमेरिका में इन्फ्लूएंज़ा ज़्यादा बड़ी समस्या है.

सबसे पहली स्टेज है – डिस्कवरी. मतलब लैब में कमज़ोर या मरा हुआ वायरस तैयार करना. पहले इस स्टेज में कई साल लग जाते थे. लेकिन अब एडवांस टेक्नोलॉजी के चलते ये कुछ हफ्तों में किया जा सकता है. कोरोना वाले मामले में कई जगहों पर इसे जनवरी के महीने में ही कर लिया गया था.
इसके बाद शुरू होता है सबसे अहम और समय लेने वाली स्टेज- क्लिनिकल ट्रायल्स. मतलब इंसानों पर वैक्सीन को टेस्ट किया जाता है. इसके लिए वॉलंटियर्स खोजने होते हैं. वायरस के रिस्क को ध्यान में रखते हुए क्लिनिकल ट्रायल कई फेज़ में होते हैं. आप हर फेज़ में वॉलंटियर्स के प्रकार, उनकी संख्या और इसमें लगने वाले टाइम पर गौर कीजिएगा.
फेज़ 1
सबसे पहले दर्जनों स्वस्थ लोगों पर वैक्सीन का ट्रायल होता है. इसमें करीब तीन महीने लगते हैं. अगर इन्हें कोई दिक्कत नहीं होती, तो अगले फेज़ पर बढ़ा जाता है.
फेज़ 2
इस बार सैकड़ों लोगों को टीका लगाया जाता है. कोशिश होती है कि ये लोग वायरस के संक्रमण वाले इलाके से हों. इसमें छ: से आठ महीने लग जाते हैं. अगर यहां भी सब चंगा होता है, तो अगले फेज़ पर बढ़ते हैं.
फेज़ 3
इस फेज़ के लिए कई हज़ार लोगों को लिया जाता है. वो भी वायरस आउटब्रेक वाले इलाके से. यहां छ:-आठ महीने और लगते हैं. अगर इस फेज़ में भी कोई दिक्कत नहीं होती, तो मामला आगे बढ़ता है. अप्रूवल की तरफ.

पोलियो की वैक्सीन यानी टीका भारत में एक बड़ा अभियान बन चुका है.

सारे टेस्ट का डेटा किसी ड्रग रेग्युलेटरी बॉडी के पास जाता है. भारत में Central Drugs Standard Control Organization है. अमेरिका में US Food and Drug Administration है. ये संस्थाएं सारा डेटा देखती हैं और उसके बाद फैसला करती हैं कि वैक्सीन को अप्रूव करना है या नहीं. इस प्रोसेस में भी कई महीने या सालभर का समय लग सकता है. 
ये सब हो चुकने के बाद इस वैक्सीन की मैन्युफैक्चरिंग और डिस्ट्रीब्यूशन का काम शुरू होता है.
अगर आप हिसाब लगा रहे हैं, तो पता चलेगा कि जो डेढ़ साल का वक्त बताया जा रहा है, वो ज़्यादा नहीं, बल्कि कम ही है. इस प्रोसेस को तेज़ करने का मतलब होगा रिस्क लेना. इस महामारी को खत्म करने की जगह दूसरी महामारी का चांस ले लेना.  🌺🙏  STAY HOME STAY SAFE🙏🌺
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